नई दिल्ली। इंजीनियरिंग की नौकरी छोड़ बंगलूरू के पास राघव राव ने 'एनएसआर ग्रीन वुड्स' नाम से एक पर्यावरण अनुकूल बस्ती बसाई है, जो बिजली और पानी के लिए किसी पर आश्रित नहीं है। यहां प्राकृतिक संसाधनों से मिट्टी के घर बनाए गए हैं। राघव की मानें तो मेरा जन्म आंध्र प्रदेश के कृष्णा जिले के विजयवाड़ा शहर में हुआ। मेरे पिता एक किसान थे, इसलिए मेरा बचपन प्रकृति के बीच बीता। पढ़ाई पूरी करने के बाद वर्ष 1999 में मैं बंगलूरू में एक आईटी कंपनी में नौकरी करने लगा। वर्षों तक यहां रहते हुए मुझे हमेशा ही गांव की जीवनशैली की कमी खलती थी, लेकिन मैं चाहकर भी ज्यादा समय गांव में नहीं बिता पाता था, जबकि यहां का मौसम मुझे बहुत अच्छा लगता था। पहले गांव के लोग अपने भोजन से लेकर पानी तक के लिए गांव में मौजूद प्राकृतिक संसाधनों पर ही निर्भर रहते थे, लेकिन अब ऐसा नहीं रह गया है। कुछ समय बाद मैंने गांव के अनुरूप एक ऐसी पर्यावरण अनुकूल बस्ती बसाने का विचार किया, जहां की जीवनशैली पूरी तरह से गांव की तरह हो और जहां मेरे जैसे कई लोग एक साथ मिलकर रह सकें। इसके लिए वर्ष 2013 में मैंने बंगलूरू के पास ही बेल्लावी गांव में परिवार की मदद से करीब दस एकड़ जमीन खरीदी और नौकरी के साथ ही अनूठी बस्ती बसाने में जुट गया।   

अनोखी बस्ती बसाने के लिए जल संरक्षण तकनीक पर जोर दिया 
कई वर्षों के परिश्रम के बाद मैं बस्ती बसाने में सफल हुआ। इसके लिए सबसे पहले मैंने वर्षा जल संरक्षण की तकनीकों पर शोध किया और एक ऐसी व्यवस्था बनाई, जहां वर्षा जल से लेकर ग्रे वाटर (रसोईघर और स्नानघर का अपशिष्ट जल, जिसमें मानव-मल नहीं होता) का इस्तेमाल किया जा सके। इस बस्ती का नाम मैंने 'एनएसआर ग्रीन वुड्स' रखा है।

बस्ती की खासियत
इसकी खास बात यह है कि यहां मैंने खुद मिट्टी के घर बनाए, जिनका नाम 'पंचतत्व' रखा। घरों को बनाने में मैंने कई रीसाइकल चीजों और प्राकृतिक संसाधनों का इस्तेमाल किया है। बिजली के लिए मैंने यहां सौर संयंत्र लगाया है और हर घर में एक किचन गार्डन बनाया। इसके अलावा यहां मैंने फल और औषधियों के करीब 500 पौधे लगाए हैं। हम यहां खेती के साथ विभिन्न सब्जियां भी उगाते हैं।

ताकि जीवंत हो सकें गांव
शुरू में यह छुट्टियां मनाने की जगह थी, लेकिन 2015 में मैंने नौकरी छोड़ यहां हमेशा के लिए रहने का फैसला किया। आज आसपास के लोग मेरी इस बस्ती की काफी प्रशंसा करते हैं और कई लोग मुझसे इसके बारे में पूछते भी हैं। फिलहाल मेरे साथ यहां 15 लोग रहते हैं। मैं इच्छुक लोगों को इसके बारे में बताकर ऐसी बस्तियां बसाने पर जोर दे रहा हूं, ताकि गांव की लोक-संस्कृति को जीवंत रखा जा सके।