दिल्ली। भारतवर्ष अनेक त्योहारों और लोकपर्वों का देश है। एक ऐसा ही अनोखा लोकपर्व 'मधुश्रावणी' है, जो बिहार में स्थित माता-सीता और महान कवि विद्यापति की धरती मिथिलांचल में मनाया जाता है। यह पर्व श्रावण मास के कृष्ण पक्ष पंचमी से शुरू होकर शुक्ल पक्ष की तृतीया को समाप्त होता है। यह पर्व नवविवाहिताएं पति की लंबी आयु की कामना के लिए मनाती हैं। मधुश्रावणी पर्व लगभग 15 दिनों तक चलता है। यह पर्व मायके में मनाया जाता है। इस व्रत की पूजा के लिए एक दिन पहले ही नवविवाहिताएं अपनी बहनों और सखी- सहेलियों के साथ पारंपरिक लोक गीत गुनगुनाते हुए आस-पास के बगीचों तथा फुलवारी में से फूल, पत्ते, कली आदि तोड़ कर रख लेती हैं। इन्हीं बासी फूलों व पत्तों से अगले दिन नाग - विषहरी नागिन और गौरी की विधि पूर्वक पूजा अर्चना की जाती है। पुरोहिताइन दुल्हन, अन्य महिलाओं को यह कथा सुनाती हैं। यही क्रम लगातार 15 दिनों तक चलता है, लेकिन हर दिन की पूजा की विधि व कथा दूसरे दिन से भिन्न होती है। इन दिनों नवविवाहिता ससुराल पक्ष से आए वस्त्र धारण करती हैं और 15 दिनों तक अरवा भोजन (बिना नमक के बना खाना) ग्रहण करती है। पूजा में कच्ची मिट्टी के हाथी और नाग नागिन की प्रतिमा स्वयं महिलाओं के द्वारा बनाई जाती है। इस त्योहार की विशेषता यह है कि इसमें पुरोहित का कार्य भी महिलाओं के द्वारा ही किया जाता है। यह पर्व प्रकृति से प्रेम को भी दर्शाता है। इस पर्व के आखिरी दिन व्रती को पूजा की विधि के अनुसार घुटने पर दीपक की बाती से दागा जाता है, जिसे सामान्य भाषा में टेमी दागना भी कहते हैं। यह विधि स्त्री के गृहस्थ जीवन में आने वाले उतार-चढ़ाव के बीच सहनशीलता कायम रखने का गुण सिखलाती है।