नई दिल्ली। झारखंड की रहने वाली छुटनी देवी डायन बिसाही कुप्रथा की शिकार हुईं। इसके बाद उन्होंने इसे खत्म करने का बीड़ा उठाया। पिछले 25 वर्षों से वह इसके खिलाफ लड़ रहीं हैं और अब तक 125 से अधिक महिलाओं  को इस कुप्रथा से बचा सकी हैं। उनकी मानें तो कई मुश्किलों से जूझते हुए मैंने समाज को कुप्रथा और अंधविश्वासों से मुक्त कर जागरूक करने का काम किया है। मैं झारखंड के सरायकेला खरसावां जिले की भोलाडीह गांव की निवासी हूं। महज 12 साल की उम्र में मेरी शादी हो गई थी, इसलिए ज्यादा पढ़-लिख नहीं पाई। ससुराल जाकर परिवार के पालन-पोषण में लग गई। सितंबर, 1995 में मेरे जीवन का काला अध्याय शुरू हुआ, जब गांव वालों ने डायन बताकर मुझ पर खूब अत्याचार किए। उन दिनों यहां शिक्षा और जागरूकता के अभाव में काफी अंधविश्वास फैला हुआ था। लोगों ने आरोप लगाया कि पड़ोस की बच्ची पर मैंने जादू-टोना किया है, इस कारण वह बीमार हुई है। गांव वालों ने मुझे पेड़ से बांधकर दो दिनों तक बेरहमी से मारा-पीटा। यहां तक कि मुझ पर कुल्हाड़ी से हमला भी किया गया। फिर गांव के एक बुजुर्ग ने बताया कि लोग मुझे जान से मारने का षड्यंत्र रच रहे हैं। तब मैं किसी तरह जान बचाकर अपने बच्चों को लेकर गांव से भागी। पति ने भी मेरा साथ नहीं दिया और तभी से अलग हो गए। एक महीने तक मैं जंगल में रही। फिर आदित्यपुर अपने भाई के घर जाकर रहने लगी।    

कुप्रथा के खिलाफ जंग शुरू की
1995 में पश्चिम सिंहभूम जिले के डिप्टी कमिश्नर अमित खरे ने जब मुझ पर हुए अत्याचारों के बारे में सुना, तो उन्होंने मेरी मदद की और आरोपियों पर कार्रवाई की। फिर मैंने डायन बिसाही कुप्रथा के खिलाफ जंग शुरू की और एक टीम बनाकर पीड़ित महिलाओं की मदद करने लगी। आज मैं एसोसिएशन फॉर सोशल एंड ह्यूमन अवेयरनेस की ओर से संचालित पुनर्वास केंद्र चलाती हूं और पीड़ित महिलाओं को न्याय दिलाती हूं। 

टीम बनाकर महिलाओं की रक्षा
अब जैसे ही मुझे ऐसे मामलों की जानकारी मिलती है, मैं अपनी टीम के साथ जाकर पीड़ित महिलाओं की रक्षा करती हूं। अब तक 125 से अधिक महिलाओं को मैंने बचाया है और 35 से 40 आरोपियों को जेल भिजवाया है। आज दूर-दूर से पीड़ित महिलाएं मेरे पास न्याय के लिए आती हैं, जिन्हें मैं न केवल शरण देती हूं, बल्कि उनके लिए आरोपियों के खिलाफ कानूनी लड़ाई भी लड़ती हूं। 

'शेरनी' नाम से प्रसिद्ध हैं
पीड़ित महिलाओं की मदद के लिए मैं दूर जंगलों के बीच बसे गांवों में भी पहुंच जाती हूं। मेरी इसी निडरता के कारण ही लोग मुझे 'शेरनी' कहकर पुकारते हैं। मेरे इस प्रयास के लिए पिछले वर्ष मुझे पद्मश्री से सम्मानित किया गया। मुझे कई स्थानीय व राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिल चुके हैं। आज भी मेरी जंग जारी है और इसके प्रति मैं लोगों को जागरूक भी करती हूं।