नई दिल्ली। राजनीति पर बनी अनिल कपूर की एक फिल्म बेहद चर्चित हुई थी, जिसका नाम था 'नायक'। इसमें हीरो को एक दिन का मुख्यमंत्री बनाया गया था। इसके बाद उसने जो सिस्टम बदला था, उसका तरीका सभी को बेहद पसंद आया था। असल राजनीति में भी एक बार ऐसा हुआ था। इसमें उत्तर प्रदेश में जगदंबिका पाल को केवल 31 घंटे के अंदर अपना पद छोड़ना पड़ा था। वह केवल डेढ़ दिन के लिए मुख्यमंत्री बने थे, जो आज भी एक इतिहास है। दरअसल वर्ष 1998 में उत्तर प्रदेश में कुछ ऐसा ही हुआ था, जब प्रदेश के राज्यपाल रोमेश भंडारी ने जगदंबिका पाल को राज्य का मुख्यमंत्री बना दिया था, लेकिन कोर्ट के फैसले के बाद उन्हें 31 घंटे के अंदर अपना पद छोड़ना पड़ा था। दरअसल हुआ ये कि 21 फरवरी, 1998 को मायावती ने लखनऊ में एक नाटकीय संवाददाता सम्मेलन को संबोधित किया था, जिसमें उन्होंने अपनी मंशा साफ कर दी थी कि वो कल्याण सिंह सरकार को गिराने में कोई कसर नहीं  छोड़ेंगी। मुलायम सिंह ने भी उसी दिन कुछ संवाददाताओं से कहा कि अगर मायावती भाजपा की सरकार को गिराने के लिए तैयार हैं, तो वो भी पीछे नहीं हटेंगे। बिल्कुल यही हुआ और उसी दिन करीब दो बजे मायावती अपने विधायकों के साथ राजभवन पहुंच गईं। उनके साथ अजीत सिंह की भारतीय किसान कामगार पार्टी, जनता दल और लोकतांत्रिक कांग्रेस के भी विधायक थे।

कल्याण सिंह सब कार्यक्रम रद्द करके पहुंचे थे
राजभवन में ही मायावती ने एलान किया कि कल्याण सिंह मंत्रिमंडल में यातायात मंत्री जगदंबिका पाल उनके विधायक दल के नेता होंगे। उन्होंने राज्यपाल रोमेश भंडारी से अनुरोध किया कि कल्याण सिंह मंत्रिमंडल को तुरंत बर्खास्त करें, क्योंकि उसने अपना बहुमत खो दिया है और उसकी जगह जगदंबिका पाल को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाएं। उस समय मुख्यमंत्री कल्याण सिंह लखनऊ से बाहर गोरखपुर में अपनी पार्टी के लिए चुनाव प्रचार कर रहे थे। जैसे ही उन्हें खबर मिली कि उनको हटाने के प्रयास शुरू हो गए हैं, वो अपने सारे कार्यक्रम रद्द कर 5 बजे तक लखनऊ लौट आए। उन्होंने राज्यपाल को समझाने की कोशिश की कि उन्हें विधानसभा में बहुमत सिद्ध करने का मौका दिया जाए, लेकिन रोमेश भंडारी के सामने उनकी एक नहीं चली। राष्ट्रपति केआर नारायणन ने प्रधानमंत्री इंदर कुमार गुजराल को पत्र लिखकर राज्यपाल रोमेश भंडारी पर आरोप लगाया कि उन्होंने उनकी इच्छा के विरुद्ध कल्याण सिंह सरकार को बर्खास्त किया था। राज्यपाल रोमेश भंडारी ने मन बना लिया था कि वो मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को विधानसभा में बहुमत सिद्ध करने का कोई मौका नहीं देंगे। दरअसल ठीक 5 महीने पहले 21 अक्तूबर, 1997 को उत्तर प्रदेश विधानसभा में एक अभूतपूर्व घटना घटी थी। उस समय प्रमोद तिवारी के नेतृत्व में कांग्रेस विधायक विधानसभा अध्यक्ष के आसन के पास पहुंच कर अपना विरोध प्रकट कर रहे थे। थोड़ी देर में वहां समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के विधायक भी पहुंच गए और वहां हिंसा शुरू हो गई थी। हालात इतने बिगड़ गए कि विधायक एक दूसरे पर माइक और कुर्सियों से हमला करने लगे। मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को सुरक्षा बलों के संरक्षण में सदन से बाहर निकाला गया था। सदन में जो कुछ हुआ उससे राज्यपाल रोमेश भंडारी बहुत नाराज हुए थे। वो राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाना चाहते थे लेकिन केंद्र में राष्ट्रीय मोर्चे की सरकार ने राज्यपाल की सिफारिश नहीं मानी थी। केंद्र में मंत्री मुलायम सिंह यादव ने वो सिफारिश मनवाने के लिए अपना पूरा जोर लगा दिया, लेकिन गृह मंत्री इंद्रजीत गुप्ता और स्वयं राष्ट्रपति केआर नारायणन ने उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगाने को अपना समर्थन नहीं दिया। अपनी सरकार बचाने के लिए कल्याण सिंह ने उनको समर्थन देने वाले सभी विधायकों को मंत्री बनाने का फैसला किया। नतीजा ये हुआ कि कल्याण सिंह मंत्रिमंडल में 94 सदस्य हो गए थे।

राज्यपाल ने रात 10 बजे दिलाई शपथ
मायावती से मुलाकात के बाद राज्यपाल रोमेश भंडारी ने नाटकीय फैसला लेते हुए कल्याण सिंह सरकार को बर्खास्त कर दिया था। उसके बाद उसी रात यानी 21 फरवरी की रात 10 बजे जगदंबिका पाल को राज्य के 17वें मुख्यमंत्री के रूप में शपथ दिलाई गई। इस शपथ ग्रहण समारोह में मायावती समेत कल्याण सिंह के सभी राजनीतिक विरोधी मौजूद थे। जगदंबिका पाल पहले कांग्रेस के सदस्य हुआ करते थे, लेकिन फिर वो तिवारी कांग्रेस के सदस्य बन गए थे। वर्ष 1997 में उन्होंने नरेश अग्रवाल और राजीव शुक्ला के साथ मिलकर लोकतांत्रिक कांग्रेस का गठन किया था। जगदंबिका पाल के साथ नरेश अग्रवाल ने उप-मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली। राज्यपाल को जगदंबिका पाल को शपथ दिलाने की इतनी जल्दी थी कि राजभवन का स्टाफ शपथ ग्रहण समारोह के बाद राष्ट्रगान बजाना ही भूल गया। अगले दिन लखनऊ में लोकसभा चुनाव के लिए वोट डाले जाने थे, लेकिन विपक्ष के नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने राज्यपाल के इस फैसले के विरोध में स्टेट गेस्ट हाउस में अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल पर बैठने का फैसला किया।  लखनऊ के राज्य सचिवालय में भी अजीब सी स्थिति पैदा हो गई। उत्तर प्रदेश के इतिहास में पहली बार हुआ कि दो लोग राज्य के मुख्यमंत्री पद का दावा कर रहे थे। हालात बिगड़ते देख भाजपा ने राज्यपाल के निर्णय की वैधता को इलाहाबाद हाईकोर्ट में चुनौती दे डाली।

इलाहाबाद हाइकोर्ट ने कल्याण सिंह को किया बहाल
22 फरवरी, 1998 को बीजेपी नेता नरेंद्र सिंह गौड़ ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में राज्यपाल के फैसले के खिलाफ याचिका दायर की और अगले ही दिन के 3 बजे हाईकोर्ट ने राज्य में कल्याण सिंह सरकार को बहाल करने के आदेश दे दिए। इस फैसले से राज्यपाल रोमेश भंडारी और जगदंबिका पाल खेमे को तगड़ा धक्का लगा। उन्होंने हाईकोर्ट के इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में तुरंत अपील की। जगदंबिका पाल को 31 घंटों के अंदर मुख्यमंत्री के पद से हटना पड़ा था। हाईकोर्ट ने कल्याण सिंह को निर्देश दिए थे कि वो 3 दिनों के अंदर सदन में विश्वास मत प्राप्त करें। 26 फरवरी को हुए शक्ति परीक्षण में कल्याण सिंह को 225 मत और जगदंबिका पाल को 196 विधायकों का समर्थन मिला। इस पूरी प्रक्रिया की निगरानी के लिए सदन में 16 वीडियो कैमरे लगाए गए थे। कल्याण सिंह को केवल 213 विधायकों के समर्थन की ज़रूरत थी, लेकिन उन्हें इससे 12 मत अधिक प्राप्त हुए। दो दिन के अंदर ही जगदंबिका पाल को छोड़कर लोकतांत्रिक कांग्रेस के सभी विधायक कल्याण सिंह के खेमे में वापस चले गए और इस तरह जगदंबिका पाल सिर्फ़ 31 घंटों तक उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रह पाए। दिलचस्प बात ये थी कि 5 विधायकों को, जिनमें 4 बहुजन समाज पार्टी के थे, एनएसए यानी राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत जेल में बंद कर दिया गया था, हालांकि उन्हें सदन में आकर विश्वास मत में शामिल होने की अनुमति प्रदान की गई थी। हाईकोर्ट के फैसले के बाद भी जगदंबिका पाल (दाएं) मुख्यमंत्री कार्यालय छोड़ने को तैयार नहीं थे।