रंजीता सिंह 
गाजियाबाद। अभी करीब दो महीने पहले दिल्ली के राव कोचिंग सेंटर के बेसमेंट में पानी भरने से तीन छात्रों की मौत हो गई ​थी। इस घटना के बाद लोग यह समझ नहीं पा रहे थे कि आ​खिरकार इतना पानी कैसे भर गया कि छात्रों की मौत हो गई। पानी कैसे आया और इतना तेज बहाव कैसे हो गया कि बच्चे उसमें डूब गए। इसके लिए आपको दिल्ली के कोचिंग सेंटर और पीजी का हाल  जाकर देखना होगा। बेहद छोटे-छोटे फ्लैट और कमरों में चल रहे इन पीजी और सेंटरों की हालत बेहद दयनीय है। कबूतरखाने जैसे कमरों में जब बच्चों का रहने में दम घुटता होगा तो वह पढ़ाई कैसे करेंगे, लेकिन पूरे ​दिल्ली-एनसीआर में पीजी, हॉस्टल और कोचिंग सेंटरों की यही हालत है। यहां कोचिंग और पीजी संचालकों ने लूट मचा रखी है। 

रोशनी का नहीं नामोनिशान
नोएडा के ममूरा के एक पीजी में रहने वाली विभा की मानें तो वह एक मीडिया हाउस में जॉब करती हैं। नाइट ड्यूटी होने के कारण पास ही में एक पीजी में रह रही हैं लेकिन वह कहती हैं यहां केवल दाल और चावल मिलते हैं। नाश्ता छोड़ दिया जाए तो लंच और डिनर में उबले चावल और दाल भी बिना छोंकी मिलती है, जो खाने में बेहद घटिया होती है। अब दूसरा पीजी ढूंढ रही हूं। वह कहती हैं कि एक कमरे में तीन से चार लड़कियां रहती हैं। सफाई भी कुछ खास नहीं है लेकिन घर से दूर सुरक्षा के लिहाज से यह पीजी ही आपकी रखवाली करते हैं लेकिन महंगे किराए के बावजूद इनमें सुविधाएं न के बराबर हैं। इसमें ना बालकनी है, ना ही ​खिड़की। सूर्य की रोशनी का नामोनिशान नहीं है, बस आप इसमें समय काट सकते हैं।  

पैसे दुगुने और पीजी हैं कबूतरखाने जैसे
ऐसा ही हाल कुछ दिल्ली के आरकेपुरम में पीजी में रहने वाली वान्या मिश्रा बताती हैं, वह कहती हैं कि वह बंगलुरू से यहां पढ़ने आई हैं। उनका एडमिशन डीयू के साउथ कैंपस के एक कॉलेज में हुआ है। साथ ही वह यूपीएससी की तैयारी भी करना चाहती हैं, लेकिन अभी तो पीजी ढूंढने में ही काफी समय बर्बाद हो गया। बावजूद इसके मनचाहा कमरा नहीं मिला। यहां तो कबूतरखाने जैसे कमरे हैं, बेहद छोटे और उनमें सीलन अलग से है। करीब एक महीने तक ढूंढने के बाद भी कोई ढंग का कमरा नहीं मिला। वह कहती हैं कि अगर पहले पता होता कि दिल्ली में रहना इतना मु​श्किल है तो वह यहां कभी नहीं आतीं। अब एडमिशन हो चुका है तो दिन तो काटने ही हैं। वह बताती हैं कि कॉलेज की एक साल की फीस करीब 25 हजार रुपये गई है लेकिन पीजी का एक महीने का किराया 25 हजार है। जिनके माता-पिता के पास इतने पैसे नहीं वो बच्चों को कैसे पीजी में रखेंगे। यहां एक महीने का किराया और एक महीने का एडवांस लिया जा रहा है यानी पहले 50 हजार रुपये जमा करो, तब पीजी मिलेगा और अगर आपने बिना नोटिस के पीजी छोड़ दिया तो सारी रकम डूब गई। इससे पीजी वालों की तो चांदी है, मगर पेरेंटस का बुरा हाल है। वह तो खूब लुट रहे हैं। कश्मीर से आईं सुचिता की मानें तो उन्हें एक साल हो गया। शुरू में तो बहुत दिक्कत आई लेकिन अब आदत हो गई है। वह कहती हैं कि हर किसी का डीयू से पढ़ने का सपना होता है तो सपना जीने की कुछ कीमत तो चुकानी पड़ेगी। वह मानती हैं कि दिल्ली में पीजी में रहना और फिर पढ़ाई करना बेहद मु​श्किल टॉस्क है। पेरेंट गीता ने बताया​ कि उन्हें तो बच्चे को छोड़कर जाते वक्त आंसू आ गए, नाजो में पली मेरी बिटिया इस कबूतरखाने में कैसे रहेगी लेकिन यहां और कोई ऑप्शन नहीं है तो क्या करें। वह कहती हैं कि सरकार को इस पर ध्यान देना चाहिए और कार्रवाई करनी चाहिए। इतने छोटे-छोटे कमरों में बच्चों को रखकर यह पीजी संचालक माता-पिता को खूब लूट रहे हैं और अगर कोई हादसा हो जाए तो बच्चे कहां जाएंगे। 

सरकार को रखनी चाहिए निगरानी 
सरकार को इस पर ध्यान देना चाहिए, साथ ही यह भी देखना चाहिए कि यह पीजी संचालक जो मोटी रकम वसूल रहे हैं तो इस पर कितना टैक्स दे रहे हैं। यह सब पैसा ब्लैक से व्हाइट किया जाता होगा। कई पीजी में तो 50 से 60 बच्चे तक हैं। ऐसे में उनकी प्रतिमाह कमाई 10 से 12 लाख रुपये तक है। क्या यह लोग इतने पैसे पर फेयर टैक्स देते होंगे। एक पेरेंट ने  नाम न छापने की शर्त पर बताया कि उन्होंने तो दो बच्चों के 80 हजार रुपये एक पीजी संचालक को भुगतान किए लेकिन बच्चों को एक हफ्ते बाद ही कमरा पसंद नहीं आया, लेकिन अब संचालक पैसे नहीं लौटा रही है। हमने कहा, जितना एक हफ्ते का वाजिब हो काट लो,  लेकिन वह मानने को तैयार नहीं। हार कर पुलिस में ​शिकायत देनी पड़ी, तब जाकर 40 हजार रुपये लौटाए, अभी 30 हजार और देने की बात हुई है लेकिन उसके लिए 15 दिन से टकरा रही है। वह कहते हैं कि यहां तो पीजी संचालक नहीं लुटेरों बैठे हैं। यही हाल कोचिंग सेंटरों का भी है। उन्होंने बिटिया को कोचिंग में एडमिशन दिलाया, वह भी पसंद नहीं आया लेकिन फीस दो महीने की ले ली। अब वह भी लौटाने को मना कर रहा है। बिना एडंवास लिए यह लोग बात भी नहीं करते। वह कहते हैं कि यहां तो बच्चों को पढ़ाना बहुत बड़ी चुनौती है। माता-पिता क्या करें। यहां अपना मकान हो तो ही दिल्ली में पढ़ने का फायदा है वरना नहीं। 

नगर निगम के पास होना चाहिए डाटा
जानकारों की मानें तो 10 लाख की आय के बाद 18 प्रतिशत टैक्स लगता है, लेकिन यह लोग पैसा बैंक में थोड़ी ना रखते होंगे। यह हाउसिंग प्लान या खेत आदि खरीदने में लगाते होंगे। यह बिना टैक्स का कालाधन ही है, जिसे यह लोग पक्का व्हाइट ही करते होंगे। सरकार को इस पर निगरानी रखनी चाहिए। सब ऐसे ना हों लेकिन अ​धिकतर का यही हाल होगा। हो सकता है कि दि​ल्ली नगर निगम को यह जानकारी भी न हो कि इलाके में कितने पीजी चल रहे हैं और कितने बच्चे रह रहे हैं। हमारे यहां को कोई हादसा होने पर ही प्रशासन जागता है, हालांकि कोचिंग और पीजी का पूरा डाटा होना चाहिए। यह बच्चों के भविष्य का सवाल है।