परिवारवाद की राजनीति से रसातल में जा रहीं पार्टियां
होतीलाल, सामाजिक कार्यकर्ता
मेरठ। हाल ही में पांच राज्यों में हुए चुनाव में चार राज्यों में भाजपा ने जबरदस्त जीत हासिल की है, जबकि एक राज्य में आम आदमी पार्टी को शानदार जीत मिली है। इसके उलट सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस को केवल और केवल हताशा हाथ लगी है। पिछले 10 सालों से केंद्र में यह पार्टी सत्ता में नहीं है, कई राज्यों में सत्ता गंवानी पड़ी है तो कई जगह सीटों का आंकड़ा शून्य भी रहा है, बावजूद इसके उत्तराधिकारियों के माथे पर शिकन तक नहीं। हर बार केवल टि्वटर पर हम हार स्वीकार करते हैं, यह बात लिखकर इतिश्री कर ली जाती है। पार्टी को आगे कैसे बढ़ाएं, इस पर कोई गंभीर चिंतन होता नहीं दिखता। परिवारवाद की राजनीति पार्टी को ले डूब रही है और कोई अफसोस करने वाला है। यही हाल कमोबेश उन अन्य पार्टियों का भी है, जो इसी के नक्शे कदम यानी परिवारवाद की विरासत पर चल रही हैं।
137 वर्ष पुरानी कांग्रेस पार्टी की दुर्दशा से चाहे कार्यकर्ता बेहद निराश और चिंतिंत हो लेकिन पार्टी के उच्च पदाधिकारी शायद ही गंभीर चिंतिंत नजर आ रहे हों। जब तक पार्टी की कमान सोनिया गांधी के पास थी,तब तक तो पार्टी फलीफूली लेकिन उसके बाद इसका एक प्रकार का पतन शुरू हो गया है। सोनिया का अब ऐसा स्वास्थ्य नहीं कि वह पार्टी की गतिविधियों में भाग ले सकें ऐसे में राहुल और प्रियंका ही इसकी कमान संभाले हुए हैं। यह दोनों बड़ों-बुजुर्गों और युवा नेताओं के बीच सांमजस्य बैठाने में विफल रहे हैं। यही कारण है कि पार्टी के सीनियर नेता इससे रूष्ट नजर आते हैं। राहुल गांधी सभी को मिलकर साथ चलने के लिए नहीं मना पा रहे हैं। यही कारण की कई वरिष्ठ और तुजुर्बेकार नेता दूसरी पार्टियों का रूख कर चुके हैं। हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं पर कोई आशा की कोई रोशनी नजर आती नहीं दिख रही है। राहुल गांधी को चार 'प' विशेष प्रिय हैं। भले ही उनकी पार्टी रसातल में जा रही हो ,परन्तु वह इस पांच 'प' से मोह नहीं छोड़ेगे। यही उनकी खुद की कमजोरी है जो पार्टी की नैया डुबो रही है।
'प' परदेश और वहां
'प' पिकनिक का आनन्द
'प' पांच सितारा रहन- सहन व अन्य शौक
'प' पुराने/वयोवृद्ध कांग्रेसियों का बहिष्कार
अन्य विरासत की पार्टियों का भी बुरा हाल
यही हाल कमोबेश अन्य विरासत में मिली पार्टियां के उत्तराधिकारियों की भी है। समाजवादी पार्टी भी इससे अछूती नहीं है, यह भी नेता जी मुलायम सिंह यादव, शिवपाल सिंह यादव एवं गोपाल यादव जी के कठिन श्रम से अर्जित पूंजी है और अखिलेश यादव को भी यह विरासत में मिली है। अखिलेश भी अपने पिता जी के बाद इस पार्टी को ऊंचाइयों तक नहीं ले जा सके। जबकि वह युवा और विदेश से पढ़कर आए नए विचारों के युवा थे बावजूद उन पर भी परिवारवाद हावी रहा और यही कारण ही एक समय सत्ता में काबिज रहने वाली पार्टी अब गर्त की ओर जा रही है।
बात करें बहुजन समाज पार्टी की तो यह भी बहन जी यानी मायावती को विरासत में ही मिली है। कांशी राम का एक मिशन था जो दलितों, वंचितों, मजलूमों के उत्थान के लिए समर्पित था। लेकिन बहन माया भी उद्देश्य-विहीन होकर भटक गईं हैं और पार्टी रसातल को प्यारी हो गई है। एक समय उन्हें राजनीति की शेरनी कहा जाता था और जब वह सत्ता में थी तो नेता से लेकर अधिकारी तक उनसे थर्र-थर्र कांपते थे लेकिन आज वह भी केंद्र की कठपुतली बन गई है, राजनीति गलियारों में ऐसी चर्चा है। उनकी पार्टी का भी बुरा हाल है। एक-एक सीट के लिए वह जूझ रही है। उन्हें भी अपने और अपने घर परिवार से अलग कोई अच्छा नजर नहीं आता। यही पार्टी के गर्त में जाने का कारण है।
पंजाब के अकाली दल का भी यही हाल है, वह भी केवल और केवल एक बादल परिवार तक ही सिकुड़ गया है। सभी अपने स्वयं के उत्थान में ही पंजाब एवं देश का उत्थान समझते हैं और आज एक नई पार्टी ने ही सबको धूल चटा दी। राजनीतिक विरासत की परंपरा से देश के कई राज्य भी ग्रसित हैं, उनमें एक राज्य कश्मीर भी है जो धरती का स्वर्ग कहा जाता है। वहां भी दो स्थानीय पार्टियां राजनीतिक विरासत की शिकार हैं। एक है नेशनल कांफ्रेंस पार्टी एवं दूसरी है पी डी पी। इनमें पहली पार्टी का सर्वेसर्वा है अब्दुल्ला खानदान एवं दूसरे की सर्वे सर्वा हैं महबूबा मुफ्ती। जिन पर भी परिवारवाद पूरी तरह हावी है।
कई राज्यों में काबिज है परिवारवाद
बिहार भी ऐसा ही राज्य है ,जहां विरासत की परंपरा एक दल विशेष 'राष्ट्रीय जनता दल' पर हावी है। वहां भी लालू यादव के बाद पहले उनकी पत्नी राबड़ी देवी ने अनपढ़ होने के बाद भी विरासत संभाली और अब उनके बेटे तेजस्वी यादव संभाल रहे हैं। यही हाल रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी का है। उनके देहांत के बाद उनके बेटे चिराग पासवान और चाचा पार्टी चिन्ह को लेकर इस कदर भिड़े कि उन्हें अदालत तक जाना पड़ा। बंगाल की तृणमूल कांग्रेस की ममता बनर्जी का मिजाज भी कुछ ऐसा ही नजर आता है। वह भी अपने भतीजे को आगे बढ़ाने के लिए वरिष्ठों को नजरअंदाज करती नजर आती हैं। दक्षिण भारत के कई राज्यों में भी वंशवाद की यह राजनीति देखी जा सकती है। देश में एक राज्य केवल ओडिशा है जहां नवीन पटनायक अपने पिता की सत्ता को बखूबी संभाले हुए हैं और लगातार 25 सालों से मुख्यमंत्री बनते नजर आ रहे हैं। हालांकि यह भी कह सकते हैं यहां भी उनके आगे कोई और पार्टी में बढ़ता नजर नहीं आता है। वहीं सर्वेसर्वा हैं। यही हाल कमोबेश महाराष्ट्र में भी है। बाल ठाकरे की विरासत को लेकर दो भाई अलग हुए। अब उद्धव ठाकरे ही पार्टी के मुखिया हैं और राज्य के मुख्यमंत्री भी। वह अपने पिता की सत्ता संभाले हुए हैं। भारत जैसे विशाल लोकतांत्रिक देश में राजनीतिक विरासत की परम्परा एक नासूर सरीखी है, इसका समाप्त होना ही लोक-हितकारी है अन्यथा शक्तिशाली विपक्ष के अभाव में एक दलीय शक्ति निरंकुशता की ओर अग्रसर होती चली जाती है जो लोक-तांत्रिक व्यवस्था के लिए घातक सिद्ध हो सकती है।