नेत्रहीन होकर भी मगन भाई ने कला में बनाई पहचान
नई दिल्ली। कहते हैं कि अगर आपमें हिम्मत और कुछ कर गुजरने की इच्छाशक्ति है तो आप कभी हार नहीं मान सकते है। कुछ ऐसा ही जज्बा दिखाया है गुजरात के रहने वाले मगनभाई ठाकोर ने। उनकी मानें तो नेत्रहीन होकर भी मैंने कभी किसी के आगे हाथ नहीं फैलाया और बीते 30 वर्षों से कुर्सियों में प्लास्टिक की डोरी से विभिन्न आकृतियां बनाने का काम कर रहा हूं। आज मैंने अपनी मेहनत और कला के बल पर एक अलग पहचान बनाई है। गुजरात के पाटण जिले के सोजित्रा गांव में मेरा जन्म हुआ। बचपन में ही मुझे कम दिखने की समस्या होने लगी थी, लेकिन आर्थिक स्थिति इतनी खराब थी कि इलाज भी नहीं करा सका। कक्षा छह के बाद मेरी आंखों की रोशनी पूरी तरह से चली गई, जिसके बाद मुझे पालनपुर के एक दिव्यांगों के आश्रय स्थल में भेज दिया गया, जहां मेरे जैसे कई गरीब बच्चों को व्यावहारिक ज्ञान के साथ-साथ किताबी शिक्षा दी जाती थी। वहां मैंने दसवीं तक पढ़ाई की। 1986 में मैंने अहमदाबाद से आईटीआई का कोर्स किया। मैं चाहता था कि जीवन में मुझे कभी किसी के सामने हाथ न फैलाना पड़े। इसलिए मैंने मैकेनिक का काम सीखा और कुछ समय तक घूम-घूमकर मोटर और पाइप रिपेयरिंग का काम भी किया, पर इन सबसे ज्यादा फायदा नहीं हुआ। फिर मैंने स्कूल में सीखे हुनर (बुनाई) को आजमाने का फैसला किया। पिछले तीस वर्षों से मैं गांव से पाटण शहर आकर लकड़ी की कुर्सियों में प्लास्टिक की डोरी से विभिन्न आकृतियां बनाने का काम कर रहा हूं।
कला से बनी मेरी पहचान
वर्ष 1990 में मैंने बैंक से 8,000 रुपये कर्ज लेकर अपने गांव से 14 किलोमीटर दूर पाटण शहर में एक दुकान खोली। मैं प्रतिदिन अकेले बस से सफर करके शहर जाता और दुकान में पुरानी कुर्सियां में बुनाई से आकृति बनाकर उन्हें खूबसूरत बनाने का काम करता। धीरे-धीरे लोगों को मेरा काम पसंद आने लगा और ग्राहकों की संख्या बढ़ने लगी।
संघर्षों का सामना भी किया
वर्ष 2004 में एक दिन नगरपालिका ने मेरी दुकान किन्ही कारणों से हटा दी, जिसको लेकर मैंने नगरपालिका में शिकायत दर्ज कराई, कलेक्टर ऑफिस के चक्कर लगाए और भी कई मुश्किलों का सामना किया। एक दिव्यांग के लिए यह सब इतना आसान नहीं था। कुछ समय बाद सरकार ने मुझे शहर में ही एक दूसरी जगह दी। धीरे-धीरे मैंने वहां भी अपनी मेहनत से उद्यम जमा लिया।
कोरोनाकाल में प्रभावित हुआ काम पर नहीं मानी हार
अब मुझे स्कूल, कॉलेज व अस्पताल जैसे कई कार्यालय से कुर्सी बनाने का काम मिलने लगा। कोरोना महामारी के कारण हुए लॉकडाउन में मेरा काम काफी प्रभावित हुआ, लेकिन मैंने हिम्मत नहीं हारी और घर से ही काम जारी रखा। पहले जहां मुझे एक डिजाइन कुर्सी के 75 रुपये मिलते थे, आज 200 रुपये मिलते हैं। आज जब लोग मेरी मिसाल देते हैं, तो मुझे बहुत खुशी होती है।