प्रेम, विरोध और वास्तुकला का बेमिसाल संगम है 'बीबी का मकबरा
नई दिल्ली। 17वीं शताब्दी में मुगल सम्राट औरंगजेब ने अपनी पत्नी दिलरस बानो बेगम की याद में ‘बीबी का मकबरा’ बनवाया था, जिसका निधन 1657 में हुआ था। महाराष्ट्र के औरंगाबाद शहर में स्थित यह मकबरा, औरंगजेब के पिता शाहजहां द्वारा आगरा में बनवाए गए ताजमहल से हैरतअंगेज रूप से मिलता-जुलता है।
ताजमहल की तरह बीबी का मकबरा भी एक वर्गाकार चबूतरे पर बना है, जिसके चारों कोनों पर ऊंची मीनारें हैं। बीच में एक गुंबददार इमारत है और चारों और नदीनुमा वातावरण है, लेकिन ताजमहल के मुकाबले यह आकार में छोटा है और इसकी बनावट में सादगी है- यह ज्यादातर चूना और स्टुको प्लास्टर से बना है, जबकि ताजमहल में कीमती सफेद संगमरमर का इस्तेमाल हुआ था। इसका मुख्य गुंबद भी ताजमहल के गुंबद जितना उभरा हुआ नहीं है और पूरी संरचना अधिक सघन है, जिसमें गुंबद और मीनारें भी अपेक्षाकृत छोटी हैं। कई विद्वानों और सर्वेक्षण-कर्ताओं ने इस मकबरे को ‘कमजोर नकल’ या ‘गरीबों का ताजमहल’ कहकर संबोधित किया है।
इमारत दे रही संदेश
हालांकि यह असमानता शायद जानबूझकर अपनाई गई थी। आगरा का ताजमहल जहां चारबाग के एक सिरे पर स्थित है - यानी एक ऐसा आयताकार बाग जो चार बराबर हिस्सों में बंटा होता है - वहीं दिलरस बानो का मकबरा पुरानी, स्थापित तैमूरी शैली का अनुसरण करता है। इस शैली में मुख्य इमारत चारबाग की दो धुरियों के संगम पर एक केंद्रीय मंच पर स्थित होती है, जैसा कि दिल्ली में हुमायूं के मकबरे में देखा जा सकता है। बीबी का मकबरा की ऊंचाई ताजमहल की संतुलित अनुपातबद्धता से बिल्कुल अलग है और यही अंतर दक्कन क्षेत्र में स्थापत्य परंपराओं में एक बदलाव को दर्शाता है। यहां ऊंची-ऊंची इमारतों का प्रयोग एक तरह से संदेश देने के लिए किया गया था, स्थानीय लोगों, यात्रियों और विशेष रूप से नए आने वाले यूरोपीय आगंतुकों को यह बताने के लिए कि यह क्षेत्र मुगल सत्ता के अधीन है।
चयन की विशेष वजह
इस स्मारक के लिए औरंगाबाद का चुनाव भी बेहद महत्वपूर्ण था। दक्कन का यह हिस्सा दिलरस बानो की मृत्यु तक कई वर्षों से औरंगजेब की सूबेदारी के अधीन था। यह शहर उसकी दूसरी राजधानी था- एक ऐसा दरबार जो दिल्ली में उसके पिता शाहजहां के दरबार के ठीक विपरीत खड़ा था, एक विरोध का स्थल! औरंगजेब ने स्वयं बीजापुर और गोलकोंडा जैसे आस-पास के रियासतों- जो आज के कर्नाटक और तेलंगाना में हैं- पर कई सैन्य अभियान चलाए थे, जिनके दौरान वह वहां की वास्तु-कला-संबंधी परंपराओं के सीधे संपर्क में आया। दिलरस बानो के मकबरे की ऊंचाई और उस पर बनी बहुखंडी मेहराबें बीजापुरी वास्तु-कला से प्रभावित हैं। मुख्य इमारत के चारों ओर बनी अष्टकोणीय मीनारें भी दक्कनी मीनारों की याद दिलाती हैं- जैसे बीजापुर के इब्राहीम रौजा की मीनारें- न कि ताजमहल की चिकनी बेलनाकार मीनारें। यहां की सजावट में महीन पारचीनकारी (या पिएत्रा-दुरा इनले) की जगह फूल-पत्तियों की प्लास्टर कारीगरी और बारीक अरबस्क डिजाइनों का इस्तेमाल किया गया है, जो दक्कनी वास्तु-कला की विशेषता है- खासतौर पर आज के कर्नाटक में स्थित गुलबर्गा के मकबरों से प्रभावित।
नए दौर का प्रतीक
बीबी का मकबरा ताजमहल की सस्ती नकल नहीं है, इसे तो दक्कन में मुगल साम्राज्य की उपस्थिति के प्रतीक के रूप में रचा गया था। इसकी वास्तु-कला शैली और सजावट में स्थानीय निर्माण परंपराओं की झलक मिलती है। यह ऐतिहासिक मकबरा औरंगजेब के लिए एक ‘विजय स्मारक’ था- उन दक्षिणी इलाकों के लिए जिन्हें उसके पूर्वज लंबे समय से जीतने की चाह रखते थे और जिन्हें उसने हाल ही में अपने साम्राज्य में शामिल किया था। ताजमहल से जुड़ी अपनी समानताओं से परे दिलरस बानो बेगम का यह मकबरा 17वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में मुगल राजनीतिक वर्चस्व के एक नए दौर का प्रतीक है। अतएव यह स्मारक अपने आप में स्वतंत्र ऐतिहासिक अध्ययन का पूर्णतः हकदार भी है!