200 से 300 रुपये किलो तक बिक रही अरहर की दाल, पर नहीं हो रही कोई बात

अंतिमा सिंह
गाजियाबाद। अक्सर जब आप घर का सामान लेने जाते हैं तो पूरा सामान एक साथ ले लेते हैं और बिल चुकाकर इतिश्री कर लेते हैं। कई बार तो आदतन हम बिल पर निगाह मार लेते हैं, वरना अधिकतर पेमेंट किया, सामान लिया और घर आ गए। मेरे साथ भी ऐसा ही होता है लेकिन इस बार पिछले महीने किचन में जब केवल अरहर की दाल खत्म हुई तो दुकान पर लेने के बाद जैसे ही पैसे पूछे तो दुकानदार बोला मैडम दो सौ रुपये। मैंने कहा भइया बस एक किलो ली है, बोला हां मैडम एक किलो के ही 200 रुपये हुए। मेरे तो पैरों तले जमीन खिसक गई, मैंने कहा ऐसे कैसे भइया, बोला मैडम आपने बहुत दिन बाद खरीदी है शायद, यही रेट चल रहे हैं। मैंने कहा पिछले साल तो 135 रुपये किलो थी और अब सीधे 200 रुपये किलो, कबसे। बोला इस साल के शुरुआत से यही दाम चल रहे हैं। आप सरकारी दाम भी देख लो, यहीं दाम हैं। गुस्से में लेकर घर आ गई, दाम चेक किए तो बात सही निकली। सरकारी दाम 167 रुपये किलो। सोचा हद हो गई। दाल इतनी महंगी, सब्जी महंगी, बंदा क्या खाएगा। और यह सोचकर हैरानी भी हुई कि अरहर की दाल जो हर घर में बनती है, उसके दाम आसमान से भी ऊंचे हो चुके हैं लेकिन कहीं कोई हल्ला नहीं हो रहा है और न ही इसकी कीमतों पर बात हो रही है। खैर फिर शुरू हुई इस बात की पड़ताल कि आखिर दाल के दाम अचानक इतने बढ़ कैसे गए। यह आम आदमी की थाली से तो गायब हो ही रही है, साथ ही पूरी रसोई का बजट भी बिगाड़ रही है। कई जगह यह 300 रुपये किलो तक में भी बिक रही है। गुरुग्राम निवासी पूजा ने बताया कि उन्होंने हाल ही में टाटा की दाल 270 रुपये में खरीदी है।
कर्नाटक में होता है सबसे अधिक उत्पादन
देश में तूर की दाल यानी अरहल की दाल का सबसे अधिक उत्पादन कर्नाटक में होता है। यहां के किसान पीली दाल का हर साल बंपर उत्पादन करते हैं। देश की कुल अरहर दाल उत्पादन में कर्नाटक की 28.94 फीसदी की हिस्सेदारी है। दूसरे स्थान पर महाराष्ट्र है। यहां देश के कुल अरहर दाल उत्पादन में इस राज्य की हिस्सेदारी 27.86 फीसदी है। भारत के टॉप तीन राज्यों में तीसरा नंबर उत्तर प्रदेश का है। यहां अरहर दाल का 7.18 फीसदी उत्पादन होता है। मध्य प्रदेश चौथे नंबर पर है। इस राज्य के किसान हर साल 7.06 फीसदी उत्पादन करते हैं। तेलंगाना का पांचवां स्थान है। यहां के किसान हर साल 6.84 फीसदी अरहर दाल का उत्पादन करते हैं। राष्ट्रीय बागवानी बोर्ड के (2022-23) आंकड़ों के अनुसार अरहर दाल के पैदावार में छठे स्थान पर झारखंड है। यहां के किसान हर साल 6.21 फीसदी अरहर दाल का उत्पादन करते हैं। यह छह राज्य मिलकर 85 फीसदी अरहर दाल का उत्पादन करते हैं। बिहार में भी इसकी अच्छी पैदावार होती है लेकिन पिछले दो सालों में इसके उत्पादन में भारी गिरावट आई है।
मौसम की मार और नीलगायों के कारण फसल हुई प्रभावित
भारतीय दलहन अनुसंधान संस्थान, कानपुर निदेशक डॉ. जीपी दीक्षित की मानें तो सबसे अधिक उत्पादन कर्नाटक और महाराष्ट्र में होता है लेकिन पिछले दो सालों में वहां या तो बहुत ज्यादा सूखा पड़ा या इतना पानी बरसा की फसल उजड़ गई। इससे फसल खराब हो गई। जो बची उसमें कीड़े लग गए तो वो भी गई। यह खरीफ की फसल होती और बरसात से ही हो जाती है लेकिन फसल खराब होने के बाद मांग और आपूर्ति में बड़ा अंतर आने से दाम बढ़े हैं। उत्तर भारत में पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड में इसकी पैदावार अधिक होती है लेकिन नील गाय और लावारिस पशुओं की अधिकता के कारण लोगों ने इसे बोना कम कर दिया है। जिससे उत्पादन घटा है।
यह फसल लेती है 10 महीने, छह महीने वाली अधिक बोने लगे किसान
पूर्वी उत्तर प्रदेश के जिला आजमगढ़ के निवासी युवा किसान हिमांशु कहते हैं कि सरकार की नीलगाय को न मारने की नीति से इनकी संख्या बहुत बढ़ गई है, इसके साथ अन्य लावारिस पशु भी खेतों में घूमते रहते हैं जो इस फसल को बहुत नुकसान पहुंचाते हैं। इस कारण जिनके खेत बड़े हैं, वह तो फैसिंग आदि लगाकर इसकी खेती थोड़ी बहुत कर रहे हैं, बाकी छोटे खेतों वाले किसानों ने तौबा कर ली है। दूसरे इस फसल को होने में करीब 10 महीने लगते हैं जबकि अन्य फसलें छह-छह महीने में ही हो जाती हैं। इस कारण भी बुआई कम हुई है।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सिंभावली निवासी तेजवीर की मानें तो यह फसल वहां बोई जाती है, जहां पानी कम होता है क्योंकि इसमें पानी काफी कम लगता है। यह बरसात के पानी से ही हो जाती है लेकिन अब पानी की सुविधा होने के कारण लोगों ने इसे बोना कम कर दिया है। इसमें समय तो ज्यादा लगता है लेकिन पानी कम लगता है लेकिन लोग फिर भी इसे बोने से बच रहे हैं। वह कहते हैं कि यह हमारे यहां तो पहले से ही कम बोई जाती है लेकिन पूर्वी उत्तर प्रदेश में यह अधिक बोई जाती है लेकिन उधर नीलगाय बहुत हैं और अब पानी की सुविधा भी गांव-गांव में हो चुकी है तो लोगों ने इसे बोना कम कर दिया है। सरकार अब ब्लॉक पर भी इसके बीज भेज रही है, बावजूद इसके किसान रुचि नहीं दिखा रहे हैं।
मांग और आपूर्ति में भारी अंतर
अगर आंकड़ों पर गौर करें तो मांग और आपूर्ति में भारी अंतर के कारण इसके दाम लगातार बढ़ रहे हैं। डॉ. जीपी दीक्षित के अनुसार देश में अरहर की दाल की कुल मांग 45 लाख टन है जबकि उत्पादन 34 लाख टन है, इस प्रकार कुल 11 लाख टन का अंतर मांग और आपूर्ति में आ चुका है। 2017-18 में देश में कुल 45 लाख टन तूर की दाल का उत्पादन हुआ था, यानी हम इसमें आत्मनिर्भर हो चुके थे लेकिन 2022-23 में मौसम की मार से फसल खराब हो गई और इसकी मांग-आपूर्ति में भारी अंतर आ गया। तबसे इसके दाम लगातार बढ़ रहे हैं। इस साल अप्रैल में सरकार ने कुल छह लाख 16 हजार मीटि्क टन दालों ( इसमें सभी दालें शामिल हैं ) को आयात किया। जिसके लिए सरकार को कुल 34 हजार करोड़ रुपये का भुगतान करना पड़ा है। 2022 में सरकार ने 15 हजार करोड़ की दालें आयात की थीं, 2023 में यह आंकड़ा बढ़कर 31 हजार करोड़ हो गया। इस बार करीब 21 लाख हेक्टेयर में इसकी बुआई होनी है, जिसमें से 17 लाख हेक्टेयर में यह बुआई हो चुकी है, अगर सब कुछ ठीक रहा तो अगले साल की शुरुआत में इसके दामों में कमी आने की पूरी उम्मीद है।
होते हैं पोषक तत्व
अरहर की दाल में भरपूर मात्रा में प्रोटीन, आयरन, कैल्शियम और कार्बोहाइड्रेट पाए जाते हैं, इसलिए यह हर घर में रोजाना बनाई जाती है। खासकर जिन घरों में छोटे बच्चे या बुजुर्ग हैं वहां तो इसकी आवश्यकता और अधिक हो जाती है।
गृहिणियां रसोई में तलाश रहीं दाल का विकल्प, बिगड़ गया है बजट
गाजियाबाद में रहने वाली पूजा कहती हैं कि वह मूलरूप से पूर्वाचल की रहने वाली हैं। उनके यहां एक समय अरहर की दाल जरूर बनती है लेकिन इसकी कीमतें इतनी ज्यादा हो गई हैं कि सोचना पड़ता है कि बनाऊं या ना बनाऊं। हमारे यहां की इस दाल के बिना गुजारा ही नहीं होता लेकिन जब दाम इतने बढ़ गए हैं तो दूसरे विकल्प तराशने पड़ेंगे। अब सब्जी और अन्य दालें भी बनानी होंगी। कभी-कभी बनने वाले छोले और राजमा अब अधिक बार बनेंगे। कुछ निष्कर्ष तो निकालना ही पड़ेगा। सरकार को इनकी कीमतें घटानी चाहिए। वह कहती हैं कि चने की दाल में अरहर की दाल मिलाकर भी बना लेते हैं लेकिन चने की दाल के दाम भी काफी बढ़े हैं। पौष्टिक होने के कारण बच्चों को यह दाल जरूर दी जाती है लेकिन इसे बढ़े दामों ने इसे बच्चों की थाली से भी छीन लिया है।
नोएडा में रहने वाले ऊषा सिंधु मूलरूप से हापुड़ की रहने वाली हैं। वह कहती हैं कि हमारे यहां तो काली उड़द और अन्य दालें अधिक बनती हैं। पीली दाल कभी-कभी बनती है, मगर सच में दाम इस समय बहुत ज्यादा हो गए हैं। आम आदमी क्या खाये। वह कहती हैं कि सरकार भी क्या करे, अब लोगों का खेती की तरफ रुझान कम हो गया है। युवा पीढ़ी को तो बस नौकरी चाहिए, कोई खेती करना ही नहीं चाहता। अभी तो गनीमत है लेकिन आने वाले सालों में देखिएगा, क्या हाल होगा। जब उत्पादन नहीं होगा और खाने वाले अधिक होंगे तो दाम तो बढ़ेंगे ही। 20 साल बाद तो शायद खेती और कम हो जाए, तब सोचिए क्या हालात होंगे। सरकार को खेती को भी रोजगार से जोड़ना चाहिए और उत्पादन बढ़ाने के लिए कारगर योजनाएं बनानी चाहिए। वरना भविष्य में हालत बहुत खराब हो जाएगी। दाल शरीर के लिए बहुत फायदेमंद होती है। इसमें भरपूर मात्रा में प्रोटीन, आयरन, कैल्शियम और कार्बोहाइड्रेट पाए जाते हैं लेकिन महंगाई की मार के कारण यह अब थाली से गायब होती जा रही है।
दालें इस साल के मूल्य पिछले साल के दाम
चना दाल 88.56 75.08
अरहर दाल 167.57 135.25
उड़द दाल 126.57 114.2
मूंग दाल 117.63 110.91
मसूर दाल 92.18 92.13
(स्रोत:- राज्य नागरिक आपूर्ति विभाग)